हर बीतते दिन के साथ लखनऊ में स्वास्थ्य सेवाओं के हाल बद से बदतर होते जा रहे हैं. और हर बीतते दिन के साथ स्वास्थ्य विभाग और ज़िला प्रशासन से जुड़े अधिकारियों की उदासीनता भी बढ़ती ही जा रही है.
लेकिन सबसे चिंताजनक बात ये है कि प्रशासन जनता की पीड़ा के प्रति अमानवीय हो गया है.
प्रदेश का राजधानी लखनऊ, जहां से पूरा प्रदेश चलता है, शीर्ष अधिकारी बैठते हैं, जहां विधानसभा है, हाई कोर्ट की बैंच है. बड़े-बड़े अधिकारियों के दफ़्तर हैं, वहां ऐसी उदासीनता की एंबुलेंस में मरीज़ दम तोड़ रहे हैं और उसके बाद लाश चक्कर काटती है, डेथ सर्टिफ़िकेट बनवाने के लिए.
हिंदी अख़बार नवभारत टाइम्स में हेल्थ रिपोर्टर ज़ीशान हुसैन राईनी की एक विशेष रिपोर्ट प्रकाशित है. जो न सिर्फ़ सोचने पर मजबूर करती है बल्कि सवाल उठाती है कि स्वास्थ्य व्यवस्था कैसे लोगों के हाथ में हैं.
पहले ज़िक्र करते हैं इस रिपोर्ट का. जीशान हुसैन की रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना का एक मरीज़ एंबुलेंस में ही इंतेजार करता रहा और उसे किसी ने देखा तक नहीं. जब मरीज़ ने दम तोड़ दिया तो उसके परिजनों को डेथ सर्टिफिकेट बनवाने में रात भर मशक्कत करनी पड़ी.
अपनी रिपोर्ट में जीशान लिखते हैं, ‘मल्हौर का 27 साल का अंकित गुरुवार को अव्यवस्था से लड़ते-लड़ते ज़िंदगी की जंग हार गया.’
दरअसल कोरोना पॉज़िटिव पाए जाने के बाद सीएमओ कार्यालय की टीम उसे भर्ती करवाने केजीएमयू लेकर गई थी लेकिन वहां वह दो घंटे एंबुलेंस में ही तड़पता रहा. डॉक्टर जब तक उसे देखने पहुंचे, तब तक वह दम तोड़ चुका था.
अंकित के भाई तरुण ने मदद के लिए हेल्थ रिपोर्टर जीशान को संपर्क किया. तरूण के मुताबिक स्वास्थ्य विभाग की टीम बुधवार सुबह दस बजे अंकित को इंटीग्रल अस्पताल लेकर गई थी जहां उसे भर्ती नहीं किया गया. इसके बाद 12 बजे उसे एरा हॉस्पिटल ले जाया गया, यहां भी उसे भर्ती नहीं किया गया. इसके बाद सुबह चार बजे के करीब अंकित को आलमबाग स्थित टीएसएस अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां गुरुवार दोपहर उसकी हालत बिगड़ गई.
तरुण के मुताबिक वह अपने भाई को दोपहर दो बजे केजीएमयू लेकर पहुंचे थे, लेकिन शाम चार बजे तक न उन्हें भर्ती किया जा सका ना ही किसी ने उसे देखा. और आख़िरकार उसने एंबुलेंस में ही दम तोड़ दिया.
भाई की मौत का पहाड़ तरुण पर टूटा ही था कि प्रशासनिक व्यवस्था का बोझ भी उसे उठाना पड़ गया. अपने भाई के शव का अंतिम संस्कार कराने के लिए तरुण को दर-दर भटकना पड़ा.
लखनऊ पोस्ट से बात करते हुए रिपोर्टर जीशान हुसैन ने कहा, कहीं से नंबर लेकर तरुण ने अपने भाई की मौत के बाद मुझे फ़ोन किया था. हम उसके भाई को तो नहीं बचा सके लेकिन मुझे लगा कि कम से कम अब उसे परेशानियों का सामना न करना पड़े. उसकी मदद के लिए मैंने दसियों अधिकारियों को 82 से अधिक फ़ोन कॉल किए लेकिन कहीं से भी मदद नहीं मिल सकी.
जीशान कहते हैं, हर अधिकारी ने मुझसे यही पूछा कि जिनके लिए आप फ़ोन कर रहे हैं वो आपके कौन लगते हैं, मैंने जैसे ही कहा कि वो एक आम नागरिक हैं और मैं उन्हें नहीं जानता हूं और सिर्फ़ मानवता के नाते उनकी मदद करने की कोशिश कर रहा हूं, उनका रवैया ही बदल गया.
नवभारत टाइम्स के लिए जीशान की रिपोर्ट लिखे जाने तक शव एंबुलेंस में ही था. हालांकि देर रात सवा तीन बजे शव को मोर्चुरी में रखवाया जा सका. दरअसल एंबुलेंस में हुई मौत को कोई भी अस्पताल या विभाग अपने रिकॉर्ड में दर्ज करना ही नहीं चाहता था.
सवाल उठता है कि क्या लखनऊ की स्वास्थ्य सेवाएं हमेशा से ही ऐसी रहीं हैं या फिर कोरोना महामारी काल में बदहाल हो गई हैं. जीशान कहते हैं, ‘लखनऊ में पहले चीज़ें बेहतर थीं, लेकिन कोरोना महामारी के काल में स्वास्थ्य सेवाएं बुरी तरह चरमरा गई हैं.’
इसका कारण बताते हुए जीशान कहते हैं, ‘स्वास्थ्य विभाग ने ज़रूरत के हिसाब से तैयारियां नहीं की. अब हालात ये हैं कि बिना लक्षण वाले मरीज़ों के लिए होम आइसोलेशन के बावजूद अस्पतालों में जगह नहीं.’
लखनऊ में इन दिनों सबसे बड़ी समस्या ये है कि स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी किसी की भी नहीं सुन रहे हैं. पत्रकार तो क्या वो अपने शीर्ष अधिकारियों तक के फ़ोन नहीं उठा रहे हैं.
‘यदि प्रशासन ने स्थिति को गंभीरता से नहीं लिया तो ज़मीनी हालात और बिगड़ सकते हैं. लखनऊ में हालात सुधारने के लिए तुरंत शीर्ष स्तर से क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है.’
इस ख़बर पर स्वास्थ्य विभाग का पक्ष जानने के लिए हमने कई बार लखनऊ के सीएमओ और उनके कार्यालय में संपर्क किया लेकिन कोई जवाब नहीं मिल सका.